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नीलकंठा सी मैं

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छाया औऱ अँधेरा

 *छाया औऱ अँधेरा* सुना है रौशनी की रफ़्तार सबसे तेज़ है पर जहाँ भी पहुँचती है अँधेरा पहले ही मौज़ूद होता है इक अलग क़ायनात है इनकी रौशनी से आँख बचाकर छाया पहुंच जाती है दरवाजे पर्दे औऱ कोने कोने में पलँग के नीचे तो  मेरे बचपन से ही इनका राज़ है हाँ अब मुझे खुद में उलझा देख कर शायद वो मेरे चेहरे पर बड़े डर  औऱ ग़मों के चलते मुझे अब रुसवा नहीं करतीं शाम ढलते ही  छत सीढ़ी पर छायाएँ हुक़्म चलातीं हैं कमरे में तो लगातार आंखमिचौली चलती है रौशनी औऱ छाया में जैसे ही सूरज ढलता है कमरे में जगह जगह छायाएँ अपनी अपनी जगह बना लेती हैं जैसे खोमचे औऱ ठेलेवाले सड़क का घेराव कर लेते हैं जैसे ही रौशनी होती है छायाएँ भाग खड़ी होती हैं जैसे यकायक पुलिस के आते ही पंखें की बहती हवा में परछाईयों का खेल देखने लायक़ होता है जैसे लहरें रेत पर निशां बनाती बिगाड़ती हैं पर इनकी खासियत यह भी है कि एक दूसरे को ख़ूब पनाह भी देती हैं कभी कभी तो मालूम ही नहीं होता कि कौन सी छाया किस में समा गई है या कौन सी पहले से डेरा जमाये थी जैसे इक छोटा बच्चा स्कूल की घण्टी बजते ही खेलने निकल पड़ता है वैसे ही साँझ ढलते ही परछाई जगह जगह खेल का मैदा